Monday, January 21, 2013

मेरी हूर


सोयी हूरें
नहीं मिलती किताबों में भी..

सबको देखनी होती हैं
उनकी
घूरती आँखें,
घेरती बांहें
और थिरकते पाँव...

वे सारी हूरें
अभिशप्त हैं जागने के लिए
क्योंकि सोयी हैं
उनके मुरीदों की कल्पनाएँ..

मेरी हूर
सोयी है
सामने
और मैं रंगता जा रहा हूँ सफ़हे,
हज़ारों हज़ार सफ़हे -
उसके चेहरे पे,
अपने सीने में...

कविताएँ
उठकर बैठ रही हैं हर पल,
हुस्न जाग रहा है,
हूर सोयी है..

कवि ज़िंदा है!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

2 comments:

Rajesh Kumari said...

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 22/1/13 को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां स्वागत है

Rajesh Kumari said...

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 22/1/13 को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां स्वागत है