Monday, January 07, 2013

गिरा है औंधे मुँह रिश्ता



तेरी आँखें कारखाना हैं क्या,
अहसास कारीगर हैं जिनमें..

फिर रोज़-रोज़ का रोना क्यों?

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कभी शिकवों पे हँसते थे,
अभी हँस दें तो शिकवे हों..

गिरा है औंधे मुँह रिश्ता..

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कल पर निकल आएँगे कानों के भी,
आज सुन लो मुझे गर सुनना हो..

मैं बोल के उड़ जाऊँगा यूँ भी...

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उसे ग़म है कि उसकी खुशियों का कद छोटा है,
मुझे खुशी है कि ग़म की पकड़ कमज़ोर हुई..

मैं ज़िंदा हूँ और वो मरता है खुशी रखकर भी..

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कुछ झांकता है अंदर, कुछ भागता है बाहर,
मैं खुद से अजनबी-सा यह खेल देखता हूँ..

सीने में जंग छिड़ी है ईमां और बुज़्दिली में...

- Vishwa Deepak Lyricist

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