Sunday, August 15, 2010

तिरसठ साल


तुम्हें पता है?
जिसे जुड़े हुए तिरसठ साल हैं बीत गए,
उसी हिन्द के
आह! हँसे हुए तिरसठ साल हैं बीत गए..
उसी हिन्द के
आह! ये सारे तिरसठ साल हैं रीत गए..

पूछते हो
ये माज़रा क्या है?
हिन्द कौन?
ये किस्सा क्या है?

धीर धरो..
मैं बतलाता हूँ,
दु:ख क्या है
ये जतलाता हूँ..
गौर से सुनो…
तुम्हें तुम्हारा माज़ी याद दिलाता हूँ,
कब्र में दफ़न कर्त्तव्यों के
अस्थि-पंजर दिखलाता हूँ,
जिसे तुमने खंडहर कर छोड़ा,
आओ… आओ उससे मिलवाता हूँ।

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वही जिसे तुमने सड़कों पे टुकड़ा-टुकड़ा पाया था,
वही जिसे उघड़ा, उधड़ा और उखरा-उखरा पाया था,
वही जिसकी गरदन थी कहीं और कहीं पे मुखरा पाया था..
वही जिसके दुखरों में तुमने अपना दुखरा पाया था,
हाँ! वही हिन्द था!

पश्चिम के हाकिम भाग गए
जब तुमने एक हुंकार भरा,
तुम आगे बढे,
उम्मीद बढी,
तुम टुकड़े जमा कर ले आए,
और देखते-देखते
पल भर में
तुमने टुकड़ों को गूँथ दिया।

चालीस करोड़ जब हाथ मिले तो टुकड़ों ने एक रूप लिया,
शक्ल मिली, पहचान मिली, बेनूर हुस्न ने नूर लिया,
तलवे धोए, उबटन डाले, घावों के गड्ढे भर डाले,
चेहरे पे रंगत उगने लगी, हिम्मत ने दम भरपूर लिया।
सबने अपनी साँसें सौंपीं, सबने अपने लम्हे डाले,
फिर तब जाके, यह हिन्द कहीं, चलने लायक तैयार हुआ।

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सच है कि तुम्हारी मेहनत से हीं हिन्द खड़ा हो पाया था,
तुम सबकी हीं ऊँगली धरके इसने दो कदम बढाया था,
लेकिन यह क्या?
ज्योंहिं तुमको आभास हुआ कि हिन्द खुद हीं चल सकता है,
तुम मुड़ गए अपनी राहों में,
तुम खो गए अपनी चाहों में,
लेकिन तब तक यह हिन्द कहाँ थोड़ा भी संभलने पाया था।

अपनी हीं गलियों में इसको करके लावारिस छोड़ गए,
जाने किसके जिम्मे रखके अपने चालीस करोड़ गए…

कौन गलत था, कौन कहे?
जब हिन्द खुद-ब-खुद मौन रहे?
ठोकर खाके, पिसके , रिसके भी इसने ना कुछ शिकवा किया,
हाँ रोता रहा,
अपनों की खातिर रोता रहा,
जब बेईमानी, रिश्वतखोरी और राजनीति के काँटों ने
इसके शरीर के हर हिस्से के रोम-रोम को बेध दिया।

हालत फिर पहले जैसी थी,
हालात भले हीं दूजे थे,
पहले औरों से दर्द मिले,
अब तो अपने हीं दूजे थे,
अपने हीं घर में रो-रोकर दो आँख हिन्द के सूजे थे।

जब घाव बढा, नासूर बना,
बदबू फिर तुमतक जा पहुँची,
छि:! कौन है? किसकी लाश है ये?
ओह! हिन्द है ये!
ज़िंदा है, लेकिन इसको तो अपना कुछ भी है ध्यान नहीं,
बरबाद है, इसे छोड़ो अब…. यह अपना हिन्दुस्तान नहीं।

बस वो दिन था,
और फिर तुम सब,
यह देश छोड़कर निकल गए,
किसी और जहां को खुश करने,
कर्त्तव्य तोड़कर निकल गए।

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कुछ याद पड़ा?
पत्थर हो चुके हृदय पर क्या थोड़ा भी आघात पड़ा?

“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसि”
यह वेद-वाक्य है… ज्ञानियों ने कुछ सोचके हीं थी बात कही.
जो स्वर्ग से भी बढकर है कहीं,
तुम उसे भुलाए बैठे हो,
इतना गुमान क्यूँ है तुममें
जो अपनी माँ से ऐंठे हो।

यह बात हमेशा ध्यान रहे-
तुमपर पहला हक़ हिन्द का है।

चिढते हो हिन्द की हालत से?

जिस दिन यह हालत चुभने लगे,
उस दिन सपूत हो जाओगे,
अजनबी शहर को लात मार
तुम अपने घर को आओगे।

माना … कीचड़ है आँगन में,
पर.. साफ तुम्हीं को करना है,
रखनी है नींव एक रस्ते की,
जिनपर औरों को चलना है।

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“उत्तिष्ठ भारत”!
उठ जाओ,
तुम जग जाओ,
तुम आगे बढो,
तुम वीर हो,
सक्षम हो इसमें,
हो हिन्द के तुम हीं तो संबल….

वीरों वारे चल,
तेरे सारे पल…..


-विश्व दीपक