Saturday, July 24, 2010

फाउंटेन पेन


आँखों के सिरहाने
अरमानों की चिट्ठी..
और
तकिये पर
तिल-तिल रिसती यादें

नमक पिघला
और निगल गया
चिट्ठी का एक-चौथाई हिस्सा..

काश!
अपना रिश्ता "डॉट-पेन" होता..
"फाउंटेन-पेन" की स्याही
न तो "फाउंटेन-पेन" में हीं संभलती है
और न हीं
कागज़ पर...


-विश्व दीपक

7 comments:

Udan Tashtari said...

वाह!! बहुत उम्दा रचना.

SKT said...

बहुत खूब लिखा दीपक जी!... शुरू के पद खासकर पसंद आये!!

Vineet Bhardwaj said...

chha gaye deepak ji..........bahut khoob

विश्व दीपक said...

समीर जी,
बहुत-बहुत धन्यवाद!

अंकल जी,
शुक्रिया... शुक्रिया :) इन दिनों ऐसी हीं छोटी रचनाएँ लिख पा रहा हूँ। लंबी कविताएँ लिखने के लिए न विषय मिलता है और न हीं उतना संयम रह पाता है। आगे भी यही कोशिश रहेगी कि आपकी पसंद का लिखता रहूँ।

विनीत भाईईईईईईईईईईईईईईई,
किधर हैं भाई। आपको ढूँढ-ढूँढ कर परेशान हो गया हूँ। आपका फोन नंबर भी तो नहीं है मेरे पास। कैसी चल रही है तैयारी।
जो थोड़ा-बहुत हम छाते रहते हैं, वह सब आपकी हीं दुआ है। कभी फ़ेस-बुक या गूगल टॉक पर आईये. ढेर सारी बातें करेंगे।

-विश्व दीपक

Anonymous said...

kamaal likha hai VD !!!!

Anonymous said...

kamaal likha hai VD !
- Kuhoo

amrendra kumar said...

Vaah, Bahut kub VD Bhai, aapko dot-pen waale riste ki talash hai...


Par aaj kal yahan likho pheko rishte hin milte hain...bina namak pighle hin achanak sab kuchh khatm ho jata hai..

nice thought..