Sunday, December 27, 2009

मोरा सोणा सजन!


मोरा सोणा सजन!

तामझाम से दूर रहे है,
शर्म-हया में चूर रहे है,
पर..
बात-बात में घूर रहे है,
लगे..
फूलों का नाजुक दोना सजन,
मोरा सोणा सजन!

भेड़चाल से कतई अलग है,
पेंचो-खम से अलग-थलग है,
पर..
तीसमार ये दिल का ठग है
लगे..
माटी का नर्म भगोना सजन,
मोरा सोणा सजन!

कामकाज का भूत चढे है,
दौड़-दौ़ड़ दिन-रात बढे है,
पर..
आँख-आँख में प्यार पढे है,
लगे..
माथे का खास डिठोना सजन,
मोरा सोणा सजन!


-विश्व दीपक

Wednesday, December 23, 2009

बातें


सिले-सिले से लब पे तेरे सीली-सीली बातें हैं,
धूप जलाके लूट लूँ उनको, ढीली-ढीली बातें हैं।

चाँद चुराके बैठी आँखें,
बंद-बंद हैं जिनकी पाँखें,
पोर-पोर सुरमा है टाँके,
कला-कला हल्के से झाँके,
और-और हाँ उसी ठौर,
गौर-गौर हाँ किए गौर,
होश मेरा चुपके से फ़ाँके।

गर्म-गर्म साँसों में तेरी, गीली-गीली बातें हैं,
रात बुझाके बाँट लूँ उनको, ढीली-ढीली बातें हैं।

मान-मनव्वल-सी ये पलकें,
झुके-उठे नखरे कर ढलके,
घड़ी-घड़ी लफ़्ज़ों में गलके,
बूँद-बूँद अमृत बन छलके,
और-और हाँ उसी ठौर,
गौर-गौर हाँ किए गौर,
चैन मेरा खा जाए तलके।

सर्द-सर्द मौसम में सारी तीली-तीली बातें हैं,
प्यार सजाके वार लूँ खुदपे, ढीली-ढीली बातें हैं।


-विश्व दीपक

Tuesday, December 22, 2009

मस्ती के पंगे


चंगे....मस्ती के पंगे..

मुट्ठी में मन?
तौबा!!
झूठे बंधन?
तौबा!!
बासी राशन?
तौबा!!
जाली शासन?
तौबा!!
अकड़म-बकड़म ऐं वैं
दुनिया को बेड़ी दे के,
खुल्लम खुल्ला जी ले
तू सब को एंड़ी दे के।

बेबस दुश्मन
वाह-वाह!!
कातर जोखम
वाह-वाह!!
मुर्दा चिलमन
वाह-वाह!!
पुख्ता जीवन
वाह-वाह!!
चुनकर-बुनकर रख ले
इस पल को साफी दे के,
हँसकर कसकर जी ले
तू सब को माफी दे के।

पंगों की रात...
ज़िंदाबाद!!!


-विश्व दीपक

Wednesday, December 09, 2009

थोथा चना


क्यों,
शर्मिंदा है खुदा,
क्यों,
पोशीदा है खुदा।
क्यों,
बिखरी-सी है जमीं,
क्यों
सिमटी-सी है ये गीली हँसी, खिली खुशी।

क्यों,
शाखों पे है खिज़ा,
क्यों,
आलुदा है फ़िज़ा।
क्यों,
बेगैरत है जुबां,
क्यों,
सचमुच है ये कि थोथा चना, बाजे घना।

क्यों
हरसू है बस धुआँ,
क्यों
फैली है बद-दुआ,
क्यों
उजड़ा-सा है जहां,
क्यों
ऐसे हैं सब कि नींदे गवां जिये यहाँ।

क्यों
सरहद है हर कहीं,
क्यों
दौलत है दिल नहीं,
क्यों
गैरों-से हैं सभी,
क्यों
दौड़े हैं यूँ कि तोड़ी घड़ी छोड़ी खुदी।


-विश्व दीपक

Friday, November 13, 2009

इश्क़ है या कोई वारदात है?


सोलह आने खरी बात है,
नाजुक-सी तू करामात है,
लील लियो जो धर्म-जात है...

राम कसम क्या खुराफ़ात है,
वशीकरण या मुलाकात है,
लगे- इश्क़ भी तेरे साथ है।


-विश्व दीपक

Sunday, November 08, 2009

मोहे पागल कर दे..


मोहे पागल कर दे!!

इश्क़ की बूटी
डाल के लूटी,
ओ री झूठी,
सच कह -
तूने पाई कहाँ से
प्यार-मोहब्बत की यह घुट्टी,
खुद तो हुई बावरी फिरती,
मेरी भी कर दी है छुट्टी।
अब जो तेरे जाल में हूँ तो
नैनन से हीं घायल कर दे,
सुन री...मोहे पागल कर दे।

बोल रसीले,
छैल-छबीले,
थोड़े ढीले,
बह कर-
मेरी ओर जुबाँ से
बने बनाए बाँध को छीले,
खुद तो मुझमें प्यास जगाए,
फिर मेरी चुप्पी को पी ले।
अब जो तेरी झील में हूँ तो
सावन का हीं बादल कर दे,
सुन री...मोहे पागल कर दे।

रूप की गठरी,
रंग की मिसरी,
लेके ठहरी,
मुझ तक-
तेरी आन पड़ी है
जान-जिया की माँग ये दुहरी,
खुद तो चाल चले है सारी,
फिर मुझसे पूछे क्या बहरी।
अब जो तेरे साथ में हूँ तो
जोबन का हीं कायल कर दे,
सुन री...मोहे पागल कर दे।


-विश्व दीपक

Thursday, November 05, 2009

खिलंदड़ इश्क़


ये इश्क़ न जाने बात-बतंगड़,
इश्क़ तो है ये बड़ा खिलंदड़..

बिन पूछे आ जावे है ये,
बिना जोर भा जावे है ये,
चुपके-चुपके चैन-वैन के
रसद सभी खा जावे है ये,
तोल-मोल के नींद हीं देवे,
आँख तले छा जावे है ये,
बड़ा बेरहम बेदर्दी है,
आके कभी ना जावे है ये.

रहे कोई ना रहे कोई
पर इश्क़ जिये बन मस्त कलंदर,
इश्क़ तो है ये बड़ा खिलंदड़।

शाम ढले ये कसक जगावे,
चाँद तले एक झलक दिखावे,
सात साधुवन की संगत में
सात जन्म के सबक बनावे,
बात-बात में आसमान के
कैनवास को लपक हिलावे,
रात गई फिर तारे चुनके
ख्वाब गढे जो पलक पे आवे।

कहे कोई ना कहे कोई
पर इश्क़ लगे है कोई धुरंधर,
इश्क़ तो है ये बड़ा खिलंदड़।


-विश्व दीपक

Wednesday, November 04, 2009

है नशा....

कहें इसको इश्क या,
खलल, जादू, बद्दुआ,
जाने मुझको क्या हुआ,
है नशा!!

यह रूत, ये वादियाँ,
कहती यह अनकहा,
मेरे दिल का आईना,
बावफ़ा!!

कुछ हैं गिरी,कुछ खो गईं, हुई मोम सी,मेरी दास्तां,
मेरा जो हाल, बदहाल है, कह दूँ इसे, इश्क क्या?

जाने मुझको क्या हुआ,
क्यूँ हूँ मैं गुमशुदा,
दिल का ये फलसफा,
ना पता!!!

हाँ तो, कैसे, बेगानों में घुल-मिल रह लूँ,
घुट के, बोलो, मझधार को साहिल कह लूँ?
रहबर, आँखें, जिसे कह दे मंजिल ,बह लूँ,
ना हो, हाँ हो, दोनों का हासिल सह लूँ।

बस मुझसे , तू कुछ कहे...

मेरे रब की ये अदा,
है रब-सी बाखुदा,
हर पल हीं जो रहा,
बेजुबां!!

देखो, आहिस्ता,दिल मेरे दिल ये लगाना,
रौनक, दुनिया की, धोखा है धोखा न खाना,
करवट, करवट, ख्वाबों का घर न सजाना,
पर हाँ, जानो कि,वो आयें, जरा शर्माना,

कभी मुझसे, वो कुछ कहे...

दिलवर जो हो जुदा,
महुए का भी नशा,
बन जाए नीम-सा,
बेमजा!!

ओ आसमां, पलकें बिछा, जिसको कहे तू , हमनवा,
चुपचाप हीं, रजनी तले, क्या कभी हुआ, मेहरबां?

मेरे दिल की है सदा,
उनको भी कुछ हुआ,
है यह सारा मामला,
इश्किआ!!!


-विश्व दीपक

Thursday, October 29, 2009

बेतरतीब-से कुछ ख्यालात

यह भी तो हद है कि हद जानता नहीं मैं,
ज़िंदा हूँ और ज़िंदगी को मानता नहीं मै।

पल हीं में राख कर दूँ मैं सूरज के शरारे,
कुव्वत है फिर भी बेवजह ठानता नहीं मैं।

अब होश है तो वक्त की भी खैर-खबर लूँ,
ऐसे तो दिन-महीने भी पहचानता नहीं मैं।

______________________________

क़ज़ा आना तो यूँ आना कि दुनिया को खबर न हो,
बिना मतलब की बातों से तेरा जीना दुभर न हो।

__________________________

खुदा मेरी खुदी का जो तलबगार हो गया,
बिना कहे कोई मेरा मददगार हो गया।

__________________________

इश्क उन आँखों को ज़ीनत देता है,
गुफ़्तगू की हद तक हसरत देता है।

मैं नज़रें कभी फ़ेरता हीं नहीं,
भरसक वो मुझे मोहलत देता है।

बस बन जाते हैं सच्चे-से बहाने,
वक्त दोस्तों को ये बरकत देता है।

नब्ज थमते हीं सुकूँ आ जाएगा,
होश ऐसे किधर फुरसत देता है।

______________________________

करीने से मुझे सोचे , गया हर वक्त याद हो,
तभी तो जां मिले मुझको, तबियत मेरी शाद हो।


-विश्व दीपक

Monday, October 05, 2009

चुपचाप


मैं चुपचाप फिरता हीं रहा!

ना चाँद को कोई थपकी दी,
ना दूब की तोड़ी कमर,
ना साँस को दी आहटें,
ना नींद की खींची चुनर,
बस एक तुम्हारे ख्वाब में-
चुपचाप फिरता हीं रहा।

मैं जहाँ था, उस जहां में चाहतों की चाशनी थी,
पक रही थी, रात जिस में ,मीठी-मीठी चाँदनी थी,
साँवला-सा आसमां था,
कुछ-कुछ तेरी आँखों-सा था,
और उसकी तलछटी में
ख्वाब कोई बुन रहा था।
सौंधी-सौंधी शबनमी-सी,
पीली-पीली रोशनी-सी,
मिट्टी दिल की घुल रही थी,
धुल रहा था मैं वहीं पर
तू वहीं पर खुल रही थी।

क्या कहूँ मैं, क्या हुआ जब, शब तले हम दो मिले,
यूँ लगा कि, बस तुम्हीं से, तारों के हैं काफ़िले,
मनचला जो आसमां था,
सब तुम्हीं को दे रहा था।
गीली-गीली संदली-सी ,
भीनी-भीनी अंबरी-सी,
खुशबू छन के उड़ रही थी,
मुड़ रहा था दिन वहीं पर,
रूत सुबह से जुड़ रही थी।

मैं चुपचाप फिरता हीं रहा।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Wednesday, September 16, 2009

मेरे खुदा (एक हीं गाना दो रूपों में)


१) यथार्थपरक (realistic)

मुखड़ा:

male:
तू हीं बता, मेरा जहां, तेरे सिवा, होगा कहीं,
बांटे कोई , दर्द-ए-निहां, ऐसा खुदा, होगा कहीं।

female:
तू है मेरा, यही सदा, यही दुआ, होगी मेरी,
तेरी हँसी, तेरी खुशी, मेरे खुदा, होगी मेरी।

अंतरा 1:

female:
ऐसी कहाँ ,होती फ़िज़ा, तू जो यहाँ, होता नहीं,
male:
तेरे बिना, मेरा कहीं, नामो-निशां, होता नहीं।
female:
है ये यकीं, या है गुमां, तू है वफ़ा, मेरे लिए,
male:
वाह रे अदा, तू जो हुई, मुझसे खफ़ा, मेरे लिए।

female:
तू है मेरा, यही सदा, यही दुआ, होगी मेरी.
male:
तू हीं बता, मेरा जहां, तेरे सिवा, होगा कहीं।

अंतरा 2:

male:
मुझको मिली, जो भी खुदी, माह-जबीं, वो है तेरी,
female:
मेरी सभी, नेकी बदी, शाह-ए-जमीं, वो है तेरी।
male:
आओ चलें, साँसों तले, दूजा जहाँ, कोई न हो,
female:
नूर-ए-खुदा, रवाँ रहे, झूठा जहाँ, कोई न हो।

male:
तू हीं बता, मेरा जहां, तेरे सिवा, होगा कहीं,
female:
तू है मेरा, यही सदा, यही दुआ, होगी मेरी|



२) काल्पनिक (fantasy)

मुखड़ा:

male:
यूँ हीं कभी, हो जाए यूँ, तू हो यहाँ, कोई न हो,
मैं बस सुनूँ, तेरी सदा, बाते तेरीं, सोई न हो।

female:
यूँ हीं कभी, हो जाए यूँ, पूरी सदी, पल में खुले,
उमड़े यहाँ, अब्र-ए-नशा, सारा जहां, हममें घुले।

अंतरा 1:

female:
तेरी हँसी , ओढूँ कभी, रूह में तेरी, सो लूँ कभी,
male:
तुझको रखे, बाहों में जो, मैं वो हवा, हो लूँ कभी।

female:
तेरे दिल से, मेरे दिल तक, डालें कभी, रस्ता कोई,
male:
रत्ती भर भी, दूरी हो तो, रहने न दें, दरिया कोई।

मेरे खुदा........................

अंतरा 2:

male:
तेरे लब पे, गुलमोहर की, सुर्ख कली, खिलती रहे,
female:
तेरी जाँ से, साँसें मेरी, बनके नदी, मिलती रहे।
male:
तू जो अगर , धरती न दे, तलवों तले, सूई चुभे,
female:
रेशम भी तो, खार बने, तेरे बिना, रूई चुभे।

मेरे खुदा........................


male:
यूँ हीं कभी, हो जाए यूँ, बाद-ए-सबा, तुझसे चले।
female:
यूँ हीं कभी, हो जाए यूँ, ज़िक्र-ए-वफ़ा, तुझपे ढले।
मेरे खुदा..............


-विश्व दीपक ’तन्हा’

प्रेयसी (एक नए अंदाज़ में)

मुखड़ा:

female:
बस तुझे, हाँ तुझे, देखूँ शामो-सुबह,
तू रहे, सामने, जी लूँ पूरी तरह।

male:
क्या कहूँ, मैं तुझे, मैं हूँ जो भी यहाँ,
रब की सौं, तू हीं है, सब की सारी वज़ह।

female:
इतनी-सी, बात है, तू है मेरा जहां।

अंतरा 1:

female:
ये तो कभी हुआ नहीं, मुझे अपनी फ़िक्र हीं ना रहे।

male:
तुझे पाके हुआ वही, कहीं जिसका जिक्र हीं ना रहे।

female:
आज हीं पाई है, मैने ऐसी दुआ,
तूने ज्योंहि छुआ,
कुछ न कुछ है हुआ।

male:
मैने भी तुझसे हीं सीखी है ये अदा,
सब कहें, प्यार पर, है ये कोई खुदा।

अंतरा 2:

male:
यूँ हीं नहीं तुझे चाहूँ, मुझे तुझमें जश्न कोई दिखे।

female:
है ये वही तेरी चाहत, मुझे जिसमें अगन कोई दिखे।

male:
मेरी तू, तेरा मैं, सच है सनम यही,
अब ये कसम रही,
हो ना जुदा कभी।

female:
बस तुझे, हाँ तुझे, देखूँ शामो-सुबह,
तू रहे, सामने, जी लूँ पूरी तरह।

male:
क्या कहूँ, मैं तुझे, मैं हूँ जो भी यहाँ,
रब की सौं, तू हीं है, सब की सारी वज़ह।

female:
इतनी-सी, बात है, तू है मेरा जहां।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Monday, September 14, 2009

प्रेयसी (एक नया गीत)

मुखड़ा:

female:
शौक़ से साँसों में तेरी आहें रहे,
रात-दिन आँखों में तेरी बातें बहे।

male:
दुधिया चाँद जो सारी रैना चले,
देखके तुझको हीं हौले-हौले जले।

female:
तू जो है साथ में तो क्या कोई छले।

अंतरा 1:

female:
कोई कमी किसी तरह मेरी वफ़ा में जन्म न हो कभी,

male:
नहीं कोई तेरे जैसी तेरी खुशियाँ खत्म न हो कभी।

female:
लाज की आखिरी धानी चुनर तू हीं,
बाली उमर तू हीं,
सीधी डगर तू हीं।

male:
तो अभी प्रेयसी आओ ऐसा करें,
खोल के जिस्म को प्यार सारा भरें।

अंतरा 2:

male:
तेरा दरस मिले सदा मेरी दुनिया तुझी से हो शुरू,

female:
सोचूँ तुझे ख्वाबों तले मेरी निंदिया तुझी से हो शुरू।

male:
होश की मखमली पीली सुबह तू हीं,
गीली सतह तू हीं,
पूरी वज़ह तू हीं।

female:
शौक़ से साँसों में तेरी आहें रहे,
रात-दिन आँखों में तेरी बातें बहे।

male:
दुधिया चाँद जो सारी रैना चले,
देखके तुझको हीं हौले-हौले चले।

female:
तू जो है साथ में तो क्या कोई छले।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Wednesday, August 12, 2009

दोस्ती

यह भी एक पुरानी कविता हीं है। आज यकायक इस पर नज़र गई तो सोचा कि क्यों न इसे औरों से शेयर किया जाए। दर-असल इसे एक गीत की तरह लिखा गया है और उम्मीद भी यही है कि एक न एक दिन इसे संगीत का सहारा मिलेगा। देखते हैं।

बेतहज़ीब कलह कर के
फिर
बेतरतीब ज़िरह कर के
फिर
बेतरकीब सुलह कर के
यूँ बानसीब अश-आरों में,
बनकर हबीब हम यारों मॆं,
खुशरंग ढंग जो रहते हैं,
बिंदास बोलकर हम उनको
अपनी हीं जिंदगी कहते हैं।

एक चाँद भरोसे जीने की,
एक काशी, एक मदीने की,
एक सीपी, एक नगीने की,
ना कभी...
ना कभी आरजू हममें पली,
हर दिल में जुदा हीं आग जली,
लेकिन अब तो
एक मर्ज़ है जो,
हम यार सभी,
गुलज़ार सभी,
एक नार-नवेली, अलबेली की
यादों में संग-संग बहते हैं,
हर करवट पर हीं लड़ते हैं,
इस लिए हीं तो,
हम यारों को
अपनी हीं जिंदगी कहते हैं।

उन नर्म धुंध की बस्ती में,
वादी की उथली कश्ती में,
फाहों की फुहड़ मस्ती में,
हम सभी.....
हम सभी फलक-सा ढलते थे,
बस अधखुली नींद में चलते थे,
लेकिन अब तो,
शब सर्द न क्यों,
हम सब मदहोश,
लिए जोश-खरोश,
बर्फानी साजिश, मीठी बारिश में
खुलेआम जंग-ए-रूत सहते हैं,
दो बूँद चाय पर मरते हैं,
इस लिए हीं तो
हम यारों को
अपनी हीं जिंदगी कहते हैं।

सफर के कोरे रोड़ों का,
लू के बेदर्द झकोरों का,
सौ दंश का, सौ हथौड़ों का,
जो तभी...
जो तभी न भाया जिक्र हमे,
थी यूँ टका-चैन की फिक्र हमें,
लेकिन अब तो,
यह राह हीं ज्यों,
हम सब के लिए,
बस ,लगे,. जिये,
सुनसान सड़क और चार बाईक,
हम निडर उमंग में दहते हैं,
पैसों पर पेट्रोल जड़ते हैं,
इस लिए हीं तो
हम यारों को
अपनी ही जिंदगी कहते हैं।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Sunday, August 09, 2009

सुन ज़िंदगी

मैं आज लगभग दो साल पुरानी कविता यहाँ पेश करने जा रहा हूँ। उम्मीद करता हूँ कि इसमें छुपी बात अभी पुरानी नहीं हुई होगी।

सुन जिंदगी, उफक से तू सूरज निकाल ले,
यह दिन गया, अगले का तू कागज निकाल ले।
बनकर मुसाफिर तू गई , इस दिन को छोड़ जो,
फिर आएगी इसी राह , सो अचरज निकाल ले ॥

यह फफकती मौत तेरे दर सौ बार आएगी,
तुझे संग ले हर बार हीं उस पार जाएगी।
नये जिस्म , नई साँसों में गढी तू होगी हमेशा ,
हर बार हीं नये जोश में तू अवतार लाएगी॥

कई रहजन , कई रहबर इस राह में होंगे,
तुझे पाएँगे, तुझे पाने की कुछ चाह में होंगे,
यूँ इश्क और हुश्न का खेल चलता रहेगा,
दुल्हे बदलेंगे, बाराती वही इस विवाह में होंगे।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Friday, June 05, 2009

शहतूत

मैं अब भी वहीं उलझा हूँ,
शहतूत की डाल से
रेशम के कीड़े उतारकर
बंजर हथेली को सुपूर्द किए
महीनों हो गए,
तब से अब तक
न जाने कितनी हीं
पीढियाँ आईं-गईं,
कितने अंडे लार्वा में तब्दील हुए,
कितने हीं प्युपाओं के अंदर का लावा
खजुराहो की मूर्त्तियों तक
उफ़न-उफ़न कर
शांत हुआ
या ना भी हुआ,
कितनों ने औरों के हुनर से
रश्क कर
लार टपकाया तो
कितनों ने लार गटका,
मजे की बात यह है कि
इंसान का लार हो तो
एक "आने" को भी तरस जाए,
लेकिन
जिस लार से रिश्ते सिल जाएँ,
उसके क्या कहने!
हाँ तो, न जाने कितनों ने
कितनों के हीं इश्क से
रश्क किया,
फिर भी
कईयों ने इश्क किया
और मैं
चुपचाप तकता रहा,
सीधी हथेली किए
उन लारों को बटोरता रहा,
जिसे श्लील भाषा में रेशम कहते हैं;
मौसम आए गए
कितनों के मौसम बदले,
लेकिन
न मेरी लकीरें हीं रेशम की हो सकीं
और न मेरा
इश्क हीं रेशमी...
मैं
शहतूत के पत्तों की भांति
ठिठका रहा,
सुबकता रहा
और
किस्मत का लेखा देखिए कि
अब भी
बिन कारण वहीं उलझा हूँ,
शायद अब भी उम्मीद दम ले रही है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Monday, March 30, 2009

नारी-मन और उम्र

उम्र हाय!
यह उम्र निगोड़ी,
उड़नखटोले पर जो बैठी,
बढती जाए थोड़ी-थोड़ी,
इस वसंत से उस वसंत तक,
मन के साथ करे बरजोरी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी।

सखियन के बाँहों में बाँहें,
डाल-डाल फिरती थी जो मैं,
कहाँ भला थिरती थी तो मैं,
एक थाल से दूजे थाल तक,
एक डाल से दूजी डाल तक,
उछल-उछल के, फुदक-फुदक के,
हवा संग गिरती थी तो मैं;
अब तो राम!
गया वह दौर,
मन उत है, पर इत है ठौर,
अब तो राम!
बस एक मलाल,
ना कहीं, पात, ना कहीं डाल,
चहुँ ओर इक लाख सवाल,
रिश्तों के रस्ते के अलावा,
उम्र ने कोई डगर नहीं छोड़ी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी।

आध-आध दर्जन भर मन की
सोच-वोच थी एक हीं जैसी,
ललक-लोच थी एक हीं जैसी,
मन जो भाए, कर जाती थीं,
मन का करके, तर जाती थीं,
मन की भांति हम सारी भी
नि:संकोच थीं एक हीं जैसी,
अब तो राम!
भय निर्भय है,
कौन हूँ मैं, यही संशय है,
अब तो राम!
हया है भारी,
जोश है मूर्छित , मैं बेचारी,
रह गई मैं, नारी की नारी,
अबला कर के अल्प-भाग्य से,
उम्र ने मेरी गाँठ है जोड़ी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी!!

अब तो इस विध हीं जीना है,
सोचती हूँ गरल पीना है,
लेकिन यह क्या....कैसा स्वर है,
मस्तिष्क कहता ....तुमको ज्वर है?
फिर क्यों , ऎसा सोच रही हो..
खुद को हीं खरोंच रही हो?
सुन रे नारी, सच बतलाऊँ,
तुमको सत्य की राह दिखाऊँ.....
"उम्र का क्या है,
एक संख्या है,
तब बढती, जब मन विह्वल हो,
भय का क्या है,
बस व्याख्या है,
मन देता, जब वह निर्बल हो|
नारी देख! तुझमें भी बल है,
तू पूरे घर की संबल है,
तो फिर भाग्य-भरोसे क्यूँ है,
अपने वय को कोसे क्यूँ है,
लोक-लाज का ध्यान हटा दे,
यौवन का अरमान हटा दे,
यौवन तो अब भी तुझमें है,
बस तुझको हीं संशय है...
संशय त्याग, खोल ले अंखियाँ,
देख तुझे, ढूँढे हैं सखियाँ !!!"

आह! आज के आज फिर से
आध-आध दर्जन भर मन में
एक हीं जैसी हूक उठी है,
वसंत है, कोयल कूक उठी है,
और वो देखो
शर्म की मारी
छिपी जा रही चोरी-चोरी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी!!

--विश्व दीपक ’तन्हा'

Monday, February 02, 2009

आसमानी ओस...

आसमानी ओस!
अंबर से बहके,
चले छलके-छलके,
घुले जो,मिले जो,
हवा के तले जो,
करे सबको पुरनम,
मद्धम हीं मद्धम,
तरल यह,सरल यह,
सहनशील-दुस्सह,
यह उजली-सुनहरी,
रजनी की चितेरी,
कुछ लहरे हीं ऎसे,
जो हो राग जैसे-
भैरवी,मालकोंश!
आसमानी ओस!!

आसमानी ओस!
जब हीं है तरसे,
गिरे जो अधर से,
करे एक हीं घर,
वर्तुल लबों पर,
एक सुंदरतम डेरा,
सुकोमल बसेरा,
यह होठों से जुड़ के,
देखे हीं मुड़ के,
पले फिर,फले फिर,
थमे फिर अस्थिर,
ज्यों संवरे उभय हीं,
गले हर हृदय हीं
खोकर सब होश!
आसमानी ओस!!

आसमानी ओस!
है प्रेम की हीं
अमित एक झाँकी,
यदि दूब पे है,
मिट्टी की मय है,
यदि पत्तों पे है,
लगे किसलय है,
रहे तुंग शिख पे,
अमर-दूत बनके,
सजे धूप में यों,
कनक-कण जले ज्यों,
पर वैभव यह पाये,
जो तुझपे ढल जाये-
हो पावन,निर्दोष!
आसमानी ओस!!

-विश्व दीपक ’तन्हा’