Friday, October 17, 2008

तेरी विधा तो एक पहेली है।

कल मद्यपान से हाय-तौबा,
आज मद्यपान जीवन की शोभा,
गुरु तेरे सान्निध्य ने यह क्या कर डाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।

कल बाबूजी से छुप-छुप कर,
मस्ती का लिए लाव-लश्कर,
स्वप्न-लोक जब पहुँचा था,
कुछ पल को मैं तब सकुंचा था,
आँखों में सूरज पिघला था,
लब पर धुएँ का छ्ल्ला था,
वो मेरी प्रथम कमाई थी,
सिगरेट बन मुझ तक आई थी,
पर संस्कार तो जिंदा था,
मैं खुद पर तो शर्मिंदा था,
आज तूने मेरे हृदय से छीना उजियाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।

कल जिस कूँची से उपजा था,
जिसकी सूची से उपजा था,
जिसने रूह उकेरा था,
वही , मेरा जो चितेरा था -
पथ-कुपथ उसी ने आँके थे,
सही-गलत के निर्णय टाँके थे,
कल तक मेरे शब्द भी अपने थे,
घर में पलते कई सपने थे,
पर आज कूँची तो तेरी है,
तेरी विधा तो एक पहेली है।
इस चित्रपट पर रंगों का निकला दीवाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।

अब सपनों के रंग नए-से हैं,
रंग दिल के तो अनचढे-से हैं,
कई रंग तो हो गए फीके हैं,
होने के ही सरीखे हैं
तूने जो कूँची थामी है,
मूल्यों की हुई निलामी है,
मुझको इस कदर संवारा है,
रिश्तों को किया किनारा है,
तू देव जो जग के धन का है,
चित्रकार मेरे जीवन का है,
मेरा जीवन ही तेरी प्रतिभा का साक्षात निवाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।

विश्व दीपक 'तन्हा'

2 comments:

रवि रतलामी said...

सच कहें तो जीवन एक पहेली है...

गौतम राजऋषि said...

मेरा जीवन ही तेरी प्रतिभा का साक्षात निवाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है...क्या बात है ....बहुत सुंदर रचना.मनोरम शब्द और कसे विचार