Thursday, September 25, 2008

अब तो जग, तज दे बेहोशी

सड़कों पर पड़े लोथड़ों में
ढूँढ रहा फिरदौस है जो,
सौ दस्त, हज़ार बाजुओं पे
लिख गया अजनबी धौंस है जो,
आँखों की काँच कौड़ियों में
भर गया लिपलिपा रोष है जो,
ईमां तजकर, रज कर, सज कर
निकला लिए मुर्दा जोश है जो,
बेहोश है वो!!!!

ओ गाफ़िल!
जान इंसान है क्या,
अल्लाह है क्या, भगवान है क्या,
कहते मुसल्लम ईमान किसे,
पाक दीन इस्लाम किसे,
दोजख है कहाँ, जन्नत है कहाँ,
उल्फत है क्या, नफ़रत है कहाँ,
कहें कुफ़्र किसे, काफ़िर है कौन,
रब के मनसब हाज़िर है कौन,
गीता, कुरान का मूल है क्या,
तू जान कि तेरी भूल है क्या!!!!

सबसे मीठी जुबान है जो,
है तेरी, तू अंजान है क्यों?
उसमें तू रचे इंतकाम है क्यों?


पल शांत बैठ, यह सोच ज़रा,
लहू लेकर भी तेरा दिल न भरा,
सुन सन्नाटे की सरगोशी,
अब तो जग, तज दे बेहोशी,
अब तो जग, तज दे बेहोशी।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Friday, September 19, 2008

गमनशीं

जिनके घर लगे हों यादों के काफ़िले,
इन अश्कों के अक्स से आ मिले।

कतर डाले हैं मैने पर अंधेरों के,
फिर कफ़स में शब से कैसे गिले ।

इक आह और आह! दरार चाँद में,
दरार सिल जाए , दर्द कैसे सिले।

हरदम हीं खुदाया! हैं सालते मुझे,
जिंदगी औ मौत के सब बहाने छिले।

होना मैने आप का ढो लिया सालों,
न होना तेरा इस रूह से कैसे हिले।

रौनक उन लबों की हो मेरे जिम्मे,
गमनशीं ’तन्हा’ के ख्वाब हैं खिले।


-विश्व दीपक ’तन्हा’