Wednesday, July 30, 2008

बिस्तर

अब वह
बेतहाशा आँखों के बिस्तर पर
चादर नहीं डालती।

उसकी पलकों की सिलवटें
उघरने लगी हैं अब
और शायद
कौड़ी गिलाफ की
नुकीली हो गई है-
एक वफ़ादार ज़फ़ा के मानिंद,
आह! चुभती है बिस्तर में।
उस तकिये में
ठूँस-ठूँस कर भरी
काले फाहों की रूई
हो गई है
कोलतार का बदमिजाज चबुतरा,
जिस पर बैठ
हर पल खेलती है
यादों की आवारा टोली
जुआ
जिंदगी और बस जिंदगी का।

कहते हैं
एक समय
वह भी एक
बिस्तर हुआ करती थी
और कोई

चादर बन
आ पड़ता था उस पर।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

6 comments:

रंजन गोरखपुरी said...

वह भी एक
बिस्तर हुआ करती थी
और एक चादर आ पड़ता था उस पर।

बेहद उम्दा पेशकश है साहब!! ये पंक्तियां ज़िन्दगी का आईना हैं!!

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है।

अब वह
बेतहाशा आँखों के बिस्तर पर
चादर नहीं डालती।

रंजू भाटिया said...

जिस पर बैठ
हर पल खेलती है
यादों की आवारा टोली
जुआ
जिंदगी और बस जिंदगी का।

बेहतरीन सुंदर लिखा है

श्रद्धा जैन said...

ohhhhhhh kitni ghari baat kahe di hai
ek aurat ki bebasi ki kahani .......

योगेन्द्र मौदगिल said...

अच्छी कविता के लिये बधाई...

shelley said...

achchhi baat hai. anubhav se pagi hui