Wednesday, July 30, 2008

बिस्तर

अब वह
बेतहाशा आँखों के बिस्तर पर
चादर नहीं डालती।

उसकी पलकों की सिलवटें
उघरने लगी हैं अब
और शायद
कौड़ी गिलाफ की
नुकीली हो गई है-
एक वफ़ादार ज़फ़ा के मानिंद,
आह! चुभती है बिस्तर में।
उस तकिये में
ठूँस-ठूँस कर भरी
काले फाहों की रूई
हो गई है
कोलतार का बदमिजाज चबुतरा,
जिस पर बैठ
हर पल खेलती है
यादों की आवारा टोली
जुआ
जिंदगी और बस जिंदगी का।

कहते हैं
एक समय
वह भी एक
बिस्तर हुआ करती थी
और कोई

चादर बन
आ पड़ता था उस पर।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Wednesday, July 16, 2008

बाजार

मिन्नतें बाजार में बाजार से करते रहे,
मोल अपनी रूह का बेज़ार-से करते रहे।

शुक्र है कि जिंदगी रास्ते आई नहीं,
रास्तों का सर कलम लाचार-से करते रहे।

बेच ना डाले कहीं सारे हीं आसमान,
पीछा अपने आप का रफ्तार से करते रहे।

मौजज़न साँसें सभी ना समाये देह में,
शिकवा अपने भाग्य का मझधार से करते रहे।

जाना, हमने पाई जो काफ़िरों की बेरूखी,
अपने होने का गुरूर बेकार-से करते रहे।

काफिला-दर-काफिला जागती रेत को
जख्मी सब दर्दे-निहाँ दो धार से करते रहे।

-विश्व दीपक ’तन्हा’