Friday, June 29, 2007

तेरे कारण

शब जला है,
सब जला है,
बाअदब रब जला है,
चाँद के सिरहाने-
आसमां का लब जला है।

तेरी आँखों की अंगीठी
में गले जब नींद मीठी,
भाप बनकर ख्वाब,छनकर,
तारों की हवेलियों में,
अर्श पर तब-तब जला है।

कल शबनमी शीतलपाटी,
रात भर घासों ने काटी,
गुनगुनी बोली से तेरी,
हवाओं के तलवे तले,
सुबह ओस बेढब जला है।

जब इश्क के साहिलों पर,
आई तू परछाई बनकर,
दरिया के दरीचे से फिर,
झांकती हर रूह का
हर तलब बेसबब जला है।

तेरे दर तक की सड़क में,
नैन गाड़, बेधड़क ये,
वस्ल के पैरोकार-सा,
रोड़ों पर कोलतार-सा,
होश का नायब जला है।

शब जला है,
सब जला है,
तेरे दीद के लिए हीं,
चाँद के सिरहाने-
आसमां का लब जला है।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Friday, June 15, 2007

वक्त (पार्ट ५)

कुछ साल पहले,
हम तीन संग थे-
तुम , मैं और वक्त,
फिर तुम कहीं गुम हो गए,
तब से न जाने क्यों
वक्त भी मुझसे रूठ गया है,
सुनो -
तुम बहुत प्यारी थी ना उसको,
शायद तुमसे हीं मानेगा,
उसे बहला-फुसलाकर भेज दो,
और सुनो,उसके लिए-
तुम भी आ जाओ ना।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

वक्त (पार्ट ४)

बड़ा जिद्दी था वह,
मुझसे हमेशा
दौड़ में बाजी लगाया करता था,
जानता था कि जीत जाएगा।
पर अब नहीं,
अब वो नजर भी नहीं आता,
क्योंकि
अब मैं जो जिद्दी हो गया हूँ,
न थकने की जिद्द पा ली है मैने।
शायद वक्त था वह,
कब का मुझसे पिछड़ चुका है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Thursday, June 14, 2007

वक्त (पार्ट २ एवं ३)

(२)
तन्हा था ,
तो वक्त ने तुमसे मिलवा दिया,
तुमने प्यार दिया

तो
मैं भूल गया कि
विकलाँग है मेरा शरीर।

अब दया दी है तुमने,
देखो मेरी रूह भी विकलांग हो गई है।
तुम्हारी कोई गलती नहीं है,
तुमसे क्यों कुछ कहूँ,
बस वक्त से नाराजगी है,
उसी को सजा दूँगा।

_________________________
(३)
वह बरगद-
जवां था जब,

कई राहगीर थे उसकी छांव में,
वक्त भी वहीं साँस लेता था,
फिर बरगद बुढा हुआ,
राहगीरों ने
उससे उसकी छांव छीन ली,
अब कई घर हैं वहाँ,
वक्त अब उन घरों में जीता है,
सच हीं कहते हैं -
वक्त हमेशा एक-सा नहीं होता।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Wednesday, June 13, 2007

वक्त

वक्त-
एक कूली है,
वादों को ढोता है

और
लम्हों की मजूरी लेता है।
वादे अगर बढ जाते हैं
तो थककर बैठ जाता है।
बड़ा ईमानदार है,
फिर मजूरी भी कम लेता है।
और लोग कहते हैं

कि
वक्त गुजरता हीं नहीं।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Monday, June 11, 2007

इसलिए तुम कवि हो

"पृष्ठ पीठ नहीं दीखाते,
शब्द बंजर नहीं होते,
कविताएँ झूठी नहीं होती,
कवि कठोर नहीं होता"-
कब तक संजोती रहूँ मैं
तुम्हारे इतने सारे सच।

हाँ यकीन था मुझे,
अब भी याद है-
वो तुम्हारा पहला
प्रेमपत्र-
"इन दिनों न सोचा मैं खुद भी जुदा,
आप को हीं है चाहा, है समझा खुदा।"
तुम्हारा इकरार,
तुम्हारा आग्रह-
"आज रूक जाइए, कल चले जाइएगा,
हमें यूँ तड़पाकर क्या पाइएगा ।"
मेरा समर्पण
और तुम्हारे सपनों का
आसमानी होना-
"सजधज वो आई घर मेरे,
अब नभ तुम हीं अगुवाई करो।"
अब तक संभाल रखे हैं
मैंने
अपने सीने पर
तुम्हारे सारे शब्द।

लेकिन वक्त के दीमक-
जो तुमने हीं दिये हैं,
निगल रहे हैं,जब्त कर रहे हैं,
मेरे यकीं को,
तुम्हारे शब्दों को।

सच कहूँ-
तुम्हे पता है शायद कि
लिखना भारी काम नहीं,
उनपर अमल करना,
शब्दों को जीना-
कई जन्मों से भारी है।
इसलिए
अपनी कविताओं में,
शब्दों के बहाने,
दो क्षण में
दस जिंदगी जीते हो तुम।
-लेकिन-
तुम्हें पता नहीं कि
जो जीवित है,
तुम्हारे हीं कुछ शब्दों के भरोसे,
उसकी जिंदगी के
कई पृष्ठ उसर हैं
और "शायद"
तुम्हारी भी..............।

-विश्व दीपक ’तन्हा’