Wednesday, May 17, 2006

इस रात का सहर नहीं

आपके साथ गुजारी वह रात-
आसमां की खुली बाहॊं में
छ्त पर
अकेलेपन में-
मन के किसी कॊने में
आपके प्रेम के स्पर्श की चाहत
और फिर
सीने की हर दीवार को बेधता
जज्बातॊं का उफान .
शायद यह तूफान
सागर ने खुद गढा था
या फिर शायद
साहिल के अस्तित्व का इम्तिहान था.
कितने हीं पल
गूंथे जा रहे थे
इस एक क्षण में,
कितना गतिमान था तुच्छ मस्तिष्क-
और अर्जुन कीं भांति एकाग्र हृदय
आपकी जलमग्न नयनों में
जलचर तलाश रहा था .
तारों की लुकाछिपी में
कितनी मुद्द्त के बाद
ध्रुवतारा देखा था मैंने -
अपनी आंखों में उसे
रूप लेते ,
सजते पाया था,
जहां के भागमभाग में
जहाँ हर दूसरा कथित अपना है,
वहाँ इसे आप पर निहारते पाया था,
शायद चाँद भी
इस करिश्मे पर हैरां था
या फिर
उसे इंतजार था इसी दिवस का
तभी तो उसकी ठिठोली
काफी जंच रही थी.
शायद
यह सब आपके साथ का असर था
या फिर
कोई अनछुई छुअन थी
जो जिंदगी की सितार बजा रही थी.
यह पहली मर्तबा था,
जब सांसों में मैंने
जीजिविषा महसूस की थी,
पलकों में एक जिद्दीपन देखा था,
और
अधरों को आलिंगनरत पाया था.
शायद
कुछ घट रहा था
मेरी जिंदगी में-
या फिर कुछ होने को था,
कुछ ज्ञात नहीं.
शायद मुझे
अब यह भी मालूम नहीं
कि
वह जो था ,
वह सचमु़च था
या फिर
दिल की तसल्ली के लिए
गढा एक दिवास्वप्न
वह रात थी
या फिर
रेगिस्तान की धूल भरी आंधी में
थपेरों को सहते
सौदागर की चाहत ,
जो नित नई मृगमरीचिका रचती है-
जज्बातों की लड़ी थी
या फिर
हथकड़ीबद्ध उम्रकैदी के स्वप्न में
खनकती चूड़ियों की रूनझून-
और आज
दिल का वही इक कोना खाली है,
शायद किसी नई रात का जिक्र बाकी हो.
-तन्हा कवि

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