Monday, December 11, 2006

आधुनिका


अमीरों की फेहरिश्त में,
मैंने सुना
आती हैं वो,
मैं सोचकर यह स्तब्ध हुआ,
इतना पैसा-
करती हैं क्या?
मैं मानता था - मजबूरी है,
कंगाली का आलम है,
सो , सर पर बालों का झूरमूट है,
पैरों में अनगढे चप्पल हैं,
कपडों का ऎसा सूखा है
कि
कतरनों को जोड़-जोड़
बड़ी मुश्किल स बदन छुपाती हैं वो।


अब जाना हूँ
स्टाईल है यह,
कई कारीगरों की मेहनत है,
बड़ी बारीकी से बिगाड़ा है।
कितनी मेहनत है-- महसूस करो,
इस शक्ति का आभास करो,
आभार लेप के भार का है,
जिसकॊ सह कर हीं रैन-दिवस
यूँ हर पल मुस्काती हैं वो।


अब अपनी हीं मति पर रोता हूँ,
इस तथ्य से क्यों बेगाना था,
वे देवी हैं-- आधुनिक देवी,
घर-घर में पूजी जाती हैं,
उनका निर्धारण,रहन-सहन
मुझ गंवार के बूते का हीं नहीं,
गाँव का एक अभागा हूँ,
खुद जैसे कितनों को मैंने
कितने घरों की इज्जत को
चिथड़ों में लिपटा पाया है,
पैसों की किल्लत को मैंने
नजदीक से है महसूस किया।
अब क्या जानूँ दुनिया उनकी
मेरी दुनिया जैसी हीं नहीं।


चलो यथार्थ को फ़िर से जीता हूँ,
मस्तिष्क में उनके हित उभरी,
जो भी कल्पित आकृति है-
शायद मेरी हीं गलती है,
इस कलियुग में अमीरों की
ऎसी हीं तो संस्कृति है।
चाहे मेरी नज़र में विकृत हो,
पर ऎसे हीं तो चह्क-चहक,
कुछ मटक-मटक ,यूँ दहक-दहक,
नई पीढी को राह दिखाती हैं वो,
अमीरी के इस आलम में ,
बड़ी मुश्किल से बदन छुपाती हैं वो।


-विश्व दीपक

Sunday, August 13, 2006

नारी-शंकर और संकोच

दो बूंद सुधा के बरसे जो,
हर जीभ द्विगुणित हो जाये.
कहीं सरवर नभ में जो उभरे,
हर कद अशोक सा बध जाये.
पर, रत्नाकर में मंथन से,
निकला जो हलाहल जलतल से,
कौन उसका अब भागीदार बने,
कौन मौत का प्रथम शिकार बने,
है कौन जहां का शुभचिंतक ,
हर वार जो तन पर सह जाये.

नारी के रूप में हर घर में
शंकर ने जन्म तदैव लिया,
हर दर्द का उसने पान किया
घर को निज हित का दैव दिया.

जब पुरूष के नेत्र थे सूखे पड़े
बन बहन विदा हो रूला दिया,
जब जल से भी जीवन मिला नहीं
माँ बन निज रूधिर हीं पिला दिया,
जब बंधु भी साथ नहीं आये
प्रेयसी बन राह भी दिखा दिया,
जब बेटों में बंट गया जहां,
बेटी बन बेटा बना लिया.

कई रूप धरे यों नारी ने,
इस पूज्य,शुचि,सुविचारी ने,
इस जग का तारनहार बनी,
निज जग का पालनहार बनी.

पर अहा,हया न त्याग बहन,
है कलि कलुष,यह जान बहन,
नारी के नाम का मर्म न हर,
यूँ शर्म को अब बेशर्म न कर,
बुत तब बन जब जग देवल हो,
तज वसन,हर रूह जब अंबर हो,
शंकर बन,विष का दंश न बन,
कामिनी का इक अपभ्रंश न बन.

निस्तेज न हो अस्तित्व तेरा,
हर तत्व समाहित तुझमे है,
प्रकृति का इक संस्करण है तू,
ममत्व समाहित तुझमे है.

-तन्हा कवि(विश्व दीपक)

Monday, May 22, 2006

मेरा प्रेम असीम है,अथाह है

सूरज के सूर्ख रूआँसों से,
दिन की ढलती हुई आसों से,
जल की जलती हुई साँसों से,
पथ के पथहीन कयासों से,
वक्त के मुरझाये पलासों से,
दरख्त प्रेम के गिरते नही,
पल कुशल-क्षेम के फिरते नहीं.
रजनी के रज की उमंगों से,
जगमग जुगनू औ' पतंगों से,
मंद मारूत की महकी तरंगों से,
कोपलों से झरतें अनंगों से,
पल के परिमल सारंगों से,
चाहत के उपवन खिलते हैं,
तब चित्त के चितवन मिलते हैं.
मैं खुद का प्रेम अथाह कहूँ,
जग से नभ तक का राह कहूँ,
उन पलकों को पनाह कहूँ,
मलयज कहूँ, दिल का शाह कहूँ,
या जीवन का हीं निर्वाह कहूँ,
निस्सीम प्रेम कम शब्द यहाँ,
प्यासा है हृदय, दिखे अब्द यहाँ.
-तन्हा कवि

Wednesday, May 17, 2006

तात,यह मेरा आंग्लिक ज्ञान

आंग्ल भाषा हम भारतवासियों के लिए कितना मायने रखती है, इसका ज्ञान हमें त़ब होता है, जब कोई हमसे पूछ बैठता है कि क्या हम इसे धाराप्रवाह बोल सकते है. कुछ ऐसा हीं प्रश्न मेरे एक प्रियजन ने मुझसे पूछा और तत्पश्चात मुझे अपने आंग्लिक ज्ञान का भान हुआ.
उसी घटना के उपलक्ष्य में 'मैं' आज सबके सामने आंग्ल
भाषा और अपने आंग्लिक ज्ञान के रहस्यमय तथ्यों को अनावृत करने को प्रस्तुत हूँ.


तात,यह मेरा आंग्लिक ज्ञान,
मानो देवल में मयपान,
मानो नभ में हो श्मशान,
मानो जन्तु पंख वितान,
मानो सुधा हो गरल समान,
मानो विज्ञ अज्ञ अंजान,
मानो तड़ित जड़ित भय-भान,
तात,यह मेरा आंग्लिक ज्ञान.
तात,यह मेरा आंग्लिक ज्ञान,
मानो नीरद नीरस निष्प्राण,
मानो निशिचर हो दिनमान,
मानो सत्त्व तत्व-हित विधान,
मानो सरवर हो सुनसान,
मानो अशोक शोक-संज्ञान,
मानो बुद्ध हो बिन निर्वाण,
तात,यह मेरा आंग्लिक ज्ञान.
तात,यह मेरा आंग्लिक ज्ञान,
मानो गर्दभ को श्रमदान,
मानो श्वान रहित निज घ्राण,
मानो काक को पिक पहचान,
मानो शूकर शुचि-सुजान,
मानो तुरग को पद-अभिमान,
मानो आंग्ल खगोल-विज्ञान,
तात,यह मेरा आंग्लिक ज्ञान.
-तन्हा कवि

इस रात का सहर नहीं

आपके साथ गुजारी वह रात-
आसमां की खुली बाहॊं में
छ्त पर
अकेलेपन में-
मन के किसी कॊने में
आपके प्रेम के स्पर्श की चाहत
और फिर
सीने की हर दीवार को बेधता
जज्बातॊं का उफान .
शायद यह तूफान
सागर ने खुद गढा था
या फिर शायद
साहिल के अस्तित्व का इम्तिहान था.
कितने हीं पल
गूंथे जा रहे थे
इस एक क्षण में,
कितना गतिमान था तुच्छ मस्तिष्क-
और अर्जुन कीं भांति एकाग्र हृदय
आपकी जलमग्न नयनों में
जलचर तलाश रहा था .
तारों की लुकाछिपी में
कितनी मुद्द्त के बाद
ध्रुवतारा देखा था मैंने -
अपनी आंखों में उसे
रूप लेते ,
सजते पाया था,
जहां के भागमभाग में
जहाँ हर दूसरा कथित अपना है,
वहाँ इसे आप पर निहारते पाया था,
शायद चाँद भी
इस करिश्मे पर हैरां था
या फिर
उसे इंतजार था इसी दिवस का
तभी तो उसकी ठिठोली
काफी जंच रही थी.
शायद
यह सब आपके साथ का असर था
या फिर
कोई अनछुई छुअन थी
जो जिंदगी की सितार बजा रही थी.
यह पहली मर्तबा था,
जब सांसों में मैंने
जीजिविषा महसूस की थी,
पलकों में एक जिद्दीपन देखा था,
और
अधरों को आलिंगनरत पाया था.
शायद
कुछ घट रहा था
मेरी जिंदगी में-
या फिर कुछ होने को था,
कुछ ज्ञात नहीं.
शायद मुझे
अब यह भी मालूम नहीं
कि
वह जो था ,
वह सचमु़च था
या फिर
दिल की तसल्ली के लिए
गढा एक दिवास्वप्न
वह रात थी
या फिर
रेगिस्तान की धूल भरी आंधी में
थपेरों को सहते
सौदागर की चाहत ,
जो नित नई मृगमरीचिका रचती है-
जज्बातों की लड़ी थी
या फिर
हथकड़ीबद्ध उम्रकैदी के स्वप्न में
खनकती चूड़ियों की रूनझून-
और आज
दिल का वही इक कोना खाली है,
शायद किसी नई रात का जिक्र बाकी हो.
-तन्हा कवि

आत्मवध

मेरी चाहतों की फेहरिश्त में
दर्ज होते नए नाम ,
मेरी चाहत का नहीं
वरन‌ मेरे संकोच का परिचायक है.

खुद को सबसे जुदा मानना,
मेरे जुदा व्यक्तित्व का नहीं,
वरन मेरे भय का संचालक है.

मेरा चिड़चिड़ापन ,
मेरी आत्मोन्मुख जीवनशैली,
मेरी बाह्य जगत से दूरी,
एकाग्रता नहीं-
वरन असुरक्षा की भावना इसका वाहक है.
इस तरह ,
आत्मबोध की कमी हीं
मेरी आत्मा का संहारक है.
-तन्हा कवि